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Rag Darbari

Page 2

by Shrilal Shukla


  तब तक ड्राइवर ने पूछा, ‘‘कहिए शिरिमानजी ! क्या हालचाल हैं ? बहुत दिन बाद देहात की ओर जा रहे हैं !’’

  रंगनाथ ने शिष्टाचार की इस कोशिश को मुस्कराकर बढ़ावा दिया। ड्राइवर ने कहा, ‘‘शिरिमानजी, आजकल क्या कर रहे हैं ?’’

  ‘‘घास खोद रहा हूँ।’’

  ड्राइवर हँसा। दुर्घटनावश एक दस साल का नंग–धड़ंग लड़का ट्रक से बिलकुल ही बच गया। बचकर वह एक पुलिया के सहारे छिपकली–सा गिर पड़ा। ड्राइवर इससे प्रभावित नहीं हुआ। एक्सिलेटर दबाकर हँसते–हँसते बोला, ‘‘क्या बात कही है ! ज़रा खुलासा समझाइए।’’

  ‘‘कहा तो, घास खोद रहा हूँ। इसी को अंग्रेज़ी में रिसर्च कहते हैं। परसाल एम. ए. किया था। इस साल से रिसर्च शुरू की है।’’

  ड्राइवर जैसे अलिफ़-लैला की कहानियाँ सुन रहा हो, मुस्कराता हुआ बोला, ‘‘और शिरिमानजी, शिवपालगंज क्या करने जा रहे हैं ?’’

  ‘‘वहाँ मेरे मामा रहते हैं। बीमार पड़ गया था। कुछ दिन देहात में जाकर तन्दुरुस्ती बनाऊँगा।’’

  इस बार ड्राइवर काफ़ी देर तक हँसता रहा। बोला, ‘‘क्या बात बनायी है शिरिमानजी ने !’’

  रंगनाथ ने उसकी ओर सन्देह से देखते हुए पूछा, ‘‘जी ! इसमें बात बनाने की क्या बात ?’’

  वह इस मासूमियत पर लोट–पोट हो गया। पहले ही की तरह हँसते हुए बोला, ‘‘क्या कहने हैं ! अच्छा जी, छोड़िए भी इस बात को। बताइए, मित्तल साहब के क्या हाल हैं ? क्या हुआ उस हवालाती के खूनवाले मामले का ?’’

  रंगनाथ का खून सूख गया। भर्राए गले से बोला, ‘‘अजी, मैं क्या जानूँ यह मित्तल कौन है।’’

  ड्राइवर की हँसी में ब्रेक लग गया। ट्रक की रफ़्तार भी कुछ कम पड़ गई। उसने रंगनाथ को एक बार गौर से देखकर पूछा, ‘‘आप मित्तल साहब को नहीं जानते ?’’

  ‘‘नहीं।’’

  ‘‘जैन साहब को ?’’

  ‘‘नहीं।’’

  ड्राइवर ने खिड़की के बाहर थूक दिया और साफ़ आवाज़ में सवाल किया, ‘‘आप सी.आई.डी. में काम नहीं करते ?’’

  रंगनाथ ने झुँझलाकर कहा, ‘‘सी.आई.डी. ? यह किस चिड़िया का नाम है ?’’

  ड्राइवर ने ज़ोर से साँस छोड़ी और सामने सड़क की दशा का निरीक्षण करने लगा। कुछ बैलगाड़ियाँ जा रही थीं। जब कहीं और जहाँ भी कहीं मौका मिले, वहाँ टाँगें फैला देनी चाहिए, इस लोकप्रिय सिद्धान्त के अनुसार गाड़ीवान बैलगाड़ियों पर लेटे हुए थे और मुँह ढाँपकर सो रहे थे। बैल अपनी क़ाबिलियत से नहीं, बल्कि अभ्यास के सहारे चुपचाप सड़क पर गाड़ी घसीटे लिये जा रहे थे। यह भी जनता और जनार्दनवाला मज़मून था, पर रंगनाथ की हिम्मत कुछ कहने की नहीं हुई। वह सी.आई.डी. वाली बात से उखड़ गया था। ड्राइवर ने पहले रबड़वाला हॉर्न बजाया, फिर एक ऐसा हॉर्न बजाया जो संगीत के आरोह–अवरोह के बावजूद बड़ा ही डरावना था, पर गाड़ियाँ अपनी राह चलती रहीं। ड्राइवर काफ़ी रफ़्तार से ट्रक चला रहा था, और बैलगाड़ियों के ऊपर से निकाल ले जानेवाला था; पर गाड़ियों के पास पहुँचते–पहुँचते उसे शायद अचानक मालूम हो गया कि वह ट्रक चला रहा है, हेलीकोप्टर नहीं। उसने एकदम से ब्रेक लगाया, पेनल से लगी हुई लकड़ी नीचे गिरा दी, गियर बदला और बैलगाड़ियों को लगभग छूता हुआ उनसे आगे निकल गया। आगे जाकर उसने घृणापूर्वक रंगनाथ से कहा, ‘‘सी.आई.डी. नहीं हो तो तुमने यह खद्‌दर क्यों डाँट रखा है जी ?’’

  रंगनाथ इन हमलों से लड़खड़ा गया था। पर उसने इस बात को मामूली जाँच– पड़ताल का सवाल मानकर सरलता से जवाब दिया, ‘‘खद्‌दर तो आजकल सभी पहनते हैं।’’

  ‘‘अजी, कोई तुक का आदमी तो पहनता नहीं।’’ कहकर उसने दुबारा खिड़की के बाहर थूका और गियर को टॉप में डाल दिया।

  रंगनाथ का परसनालिटी कल्ट समाप्त हो गया। थोड़ी देर वह चुपचाप बैठा रहा। बाद में मुँह से सीटी बजाने लगा। ड्राइवर ने उसे कुहनी से हिलाकर कहा, ‘‘देखो जी, चुपचाप बैठो। यह कीर्तन की जगह नहीं है।’’

  रंगनाथ चुप हो गया। तभी ड्राइवर ने झुंझलाकर कहा, ‘‘यह गियर बार–बार फिसलकर...न्यूटरल ही में घुसता है। देख क्या रहे हो ? ज़रा पकड़े रहो जी !’’

  थोड़ी देर में उसने दुबारा झुंझलाकर कहा, ‘‘ऐसे नहीं, इस तरह ! दबाकर ठीक से पकड़े रहो।’’

  ट्रक के पीछे काफ़ी देर से हॉर्न बजता आ रहा था। �
�ंगनाथ उसे सुनता रहा था और ड्राइवर उसे अनसुना करता रहा था। कुछ देर बाद पीछे से क्लीनर ने लटककर ड्राइवर की कनपटी के पास खिड़की पर खट्–खट् करना शुरू कर दिया। ट्रकवालों की भाषा में इस कार्रवाई का निश्चित ही कोई खौफ़नाक मतलब होगा, क्योंकि उसी वक्त ड्राइवर ने रफ़्तार कम कर दी और ट्रक को सड़क की बायीं पटरी पर कर लिया।

  हॉर्न की आवाज़ एक ऐसे स्टेशन–वैगन से आ रही थी जो आजकल विदेशों के आशीर्वाद से सैकड़ों की संख्या में यहाँ देश की प्रगति के लिए इस्तेमाल होते हैं और हर सड़क पर हर वक्त देखे जा सकते हैं। स्टेशन–वैगन दायें से निकलकर आगे धीमा पड़ गया और उससे बाहर निकले हुए एक खाकी हाथ ने ट्रक को रुकने का इशारा दिया। दोनों गाड़ियाँ रुक गईं।

  स्टेशन–वैगन से एक अफसरनुमा चपरासी और एक चपरासीनुमा अफसर उतरे। ख़ाकी कपड़े पहने हुए दो सिपाही भी उतरे। उनके उतरते ही पिंडारियों–जैसी लूट–खसोट शुरू हो गई। किसी ने ड्राइवर का ड्राइविंग लाइसेंस छीना, किसी ने रजिस्ट्रेशन–कार्ड; कोई बैकव्यू मिरर खटखटाने लगा, कोई ट्रक का हॉर्न बजाने लगा। कोई ब्रेक देखने लगा। उन्होंने फुटबोर्ड हिलाकर देखा, बत्तियाँ जलायीं, पीछे बजनेवाली घण्टी टुनटुनायी। उन्होंने जो कुछ भी देखा, वह ख़राब निकला; जिस चीज़ को छुआ, उसी में गड़बड़ी आ गई। इस तरह उन चार आदमियों ने चार मिनट में लगभग चालीस दोष निकाले और फिर एक पेड़ के नीचे खड़े होकर इस प्रश्न पर बहस करनी शुरू कर दी कि दुश्मन के साथ कैसा सुलूक किया जाए।

  रंगनाथ की समझ में कुल यही आया कि दुनिया में कर्मवाद के सिद्धान्त, ‘पोयोटिक जस्टिस’ आदि की कहानियाँ सच्ची हैं; ट्रक की चेकिंग हो रही है और ड्राइवर से भगवान उसके अपमान का बदला ले रहा है। वह अपनी जगह बैठा रहा। पर इसी बीच ड्राइवर ने मौका निकालकर कहा, ‘‘शिरिमानजी, ज़रा नीचे उतर आवें। वहाँ गियर पकड़कर बैठने की अब क्या ज़रूरत है ?’’

  रंगनाथ एक दूसरे पेड़ के नीचे जाकर खड़ा हो गया। उधर ड्राइवर और चेकिंग जत्थे में ट्रक के एक–एक पुर्ज़े को लेकर बहस चल रही थी। देखते–देखते बहस पुर्ज़ों से फिसलकर देश की सामान्य दशा और आर्थिक दुरवस्था पर आ गई और थोड़ी ही देर में उपस्थित लोगों की छोटी–छोटी उपसमितियाँ बन गईं। वे अलग–अलग पेड़ों के नीचे एक–एक विषय पर विशेषज्ञ की हैसियत से विचार करने लगीं। काफ़ी बहस हो जाने के बाद एक पेड़ के नीचे खुला अधिवेशन–जैसा होने लगा और कुछ देर में जान पड़ा, गोष्ठी खत्म होनेवाली है।

  आख़िर में रंगनाथ को अफ़सर की मिमियाती आवाज़ सुन पड़ी, ‘‘क्यों मियाँ अशफ़ाक, क्या राय है ? माफ़ किया जाए ?’’

  चपरासी ने कहा, ‘‘और कर ही क्या सकते हैं हुजूर ? कहाँ तक चालान कीजिएगा। एकाध गड़बड़ी हो तो चालान भी करें।’’

  एक सिपाही ने कहा, ‘‘चार्ज–शीट भरते–भरते सुबह हो जाएगी।’’

  इधर–उधर की बातों के बाद अफ़सर ने कहा, ‘‘अच्छा जाओ जी बण्टासिंह, तुम्हें माफ़ किया।’’

  ड्राइवर ने खुशामद के साथ कहा, ‘‘ऐसा काम शिरिमानजी ही कर सकते हैं।’’

  अफ़सर काफ़ी देर से दूसरे पेड़ के नीचे खड़े हुए रंगनाथ की ओर देख रहा था। सिगरेट सुलगाता हुआ वह उसकी ओर आया। पास आकर पूछा, ‘‘आप भी इसी ट्रक पर जा रहे हैं ?’’

  ‘‘जी हाँ।’’

  ‘‘आपसे इसने कुछ किराया तो नहीं लिया है ?’’

  ‘‘जी, नहीं।’’

  अफ़सर बोला, ‘‘वह तो मैं आपकी पोशाक ही देखकर समझ गया था, पर जाँच करना मेरा फ़र्ज था।’’

  रंगनाथ ने उसे चिढ़ाने के लिए कहा, ‘‘यह असली खादी थोड़े ही है। यह मिल की खादी है।’’

  उसने इज़्ज़त के साथ कहा, ‘‘अरे साहब, खादी तो खादी ! उसमें असली–नकली का क्या फ़र्क़ ?’’

  अफ़सर के चले जाने के बाद ड्राइवर और चपरासी रंगनाथ के पास आए। ड्राइवर ने कहा, ‘‘ज़रा दो रुपये तो निकालना जी !’’

  उसने मुँह फेरकर कड़ाई से जवाब दिया, ‘‘क्या मतलब है ? मैं रुपया क्यों दूँ ?’’

  ड्राइवर ने चपरासी का हाथ पकड़कर कहा, ‘‘आइए शिरिमानजी, मेरे साथ आइए।’’ जाते–जाते वह रंगनाथ से कहने लगा, ‘‘तुम्हारी ही वजह से मेरी चेकिंग हुई और तुम्हीं मुसीबत में मुझसे इस तरह बात करते हो ? तुम्हारी यही तालीम है
?’’

  वर्तमान शिक्षा–पद्धति रास्ते में पड़ी हुई कुतिया है, जिसे कोई भी लात मार सकता है। ड्राइवर भी उस पर रास्ता चलते–चलते एक जुम्ला मारकर चपरासी के साथ ट्रक की ओर चल दिया। रंगनाथ ने देखा, शाम घिर रही है, उसका अटैची ट्रक में रखा है, शिवपालगंज अभी पाँच मील दूर है और उसे लोगों की सद्भावना की ज़रूरत है। वह धीरे–धीरे ट्रक की ओर आया। उधर स्टेशन–वैगन का ड्राइवर हॉर्न बजा–बजाकर चपरासी को वापस बुला रहा था। रंगनाथ ने दो रुपये ड्राइवर को देने चाहे। उसने कहा, ‘‘अब दे ही रहे हो तो अरदली साहब को दो। मैं तुम्हारे रुपयों का क्या करूँगा ?’’

  कहते–कहते उसकी आवाज़ में उन संन्यासियों की खनक आ गई जो पैसा हाथ से नहीं छूते, सिर्फ़ दूसरों को यह बताते हैं कि तुम्हारा पैसा हाथ का मैल है। चपरासी रुपयों को जेब में रखकर, बीड़ी का आख़िरी कश खींचकर, उसका अधजला टुकड़ा लगभग रंगनाथ के पैजामे पर फेंककर स्टेशन–वैगन की ओर चला गया। उसके रवाना हो जाने पर ड्राइवर ने भी ट्रक चलाया और पहले की तरह गियर को ‘टॉप’ में लेकर रंगनाथ को पकड़ा दिया। फिर अचानक, बिना किसी वजह के, वह मुँह को गोल–गोल बनाकर सीटी पर सिनेमा की एक धुन निकालने लगा। रंगनाथ चुपचाप सुनता रहा।

 

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