Book Read Free

Rag Darbari

Page 14

by Shrilal Shukla


  इस कमरे का प्रयोग ऐसे साहित्य के अध्ययन के लिए भी होता था और वह अध्ययन, ज़ाहिर है, परिवार में अकेले विद्यार्थी होने के नाते, रुप्पन बाबू ही करते थे। रुप्पन बाबू कमरे का प्रयोग और कामों के लिए भी करते थे। जिस सुख के लिए दूसरे लोगों को रोटी के टुकड़े, पेड़ की छाँव, कविता, शराब की सुराही, प्रेमिका आदि उमरखैयामी पदार्थों की ज़रूरत होती है, वह सुख रुप्पन बाबू इस कमरे में अपने–आप ही खींच लेते थे।

  परिवार के सभी लोगों में शान्तिपूर्ण सह–अस्तित्व का नारा बुलन्द करनेवाले इस कमरे को देखकर लोगों के मन में स्थानीय संस्कृति के लिए श्रद्धा पैदा हो सकती थी। इसे देख लेने पर कोई भी समाजशास्त्री यह नहीं कह सकता था कि पूर्वी गोलार्द्ध में संयुक्त परिवार की व्यवस्था को कहीं से कोई ख़तरा है।

  यही कमरा रंगनाथ को रहने के लिए दिया गया था। उसे यहाँ चार–पाँच महीने रहना था। वैद्यजी ने ठीक ही बताया था। एम.ए. करते–करते किसी भी सामान्य विद्यार्थी की तरह वह कमज़ोर पड़ गया था। उसे बुखार रहने लगा था। किसी भी सामान्य हिन्दुस्तानी की तरह उसने डॉक्टरी चिकित्सा में विश्वास न रहते हुए भी डॉक्टरी दवा खायी थी। उससे वह अभी बिलकुल ठीक नहीं हो पाया था। किसी भी सामान्य शहराती की तरह उसकी भी आस्था थी कि शहर की दवा और देहात की हवा बराबर होती है। इसलिए वह यहाँ रहने के लिए चला आया था। किसी भी सामान्य मूर्ख की तरह उसने एम.ए. करने के बाद तत्काल नौकरी न मिलने के कारण रिसर्च शुरू कर दी थी, पर किसी भी सामान्य बुद्धिमान की तरह वह जानता था कि रिसर्च करने के लिए विश्वविद्यालय में रहना और नित्यप्रति पुस्तकालय में बैठना ज़रूरी नहीं है। इसीलिए उसने सोचा था कि कुछ दिन वह गाँव में रहकर आराम करेगा, तन्दुरुस्ती बनाएगा, अध्ययन करेगा, ज़रूरत पड़ने पर शहर जाकर किताबों की अदला–बदली कर आएगा और वैद्यजी को हर स्टेज पर शिष्ट भाषा में यह कहने का मौक़ा देगा कि काश ! हमारे नवयुवक निकम्मे न होते तो हम बुजुर्गों को ये ज़िम्मेदारियाँ न उठानी पड़तीं।

  ऊपर का कमरा काफ़ी बड़ा था और उसके एक हिस्से पर रंगनाथ ने आते ही अपना व्यक्तिवाद फैला दिया था। उसकी सफ़ाई कराके एक चारपायी स्थायी रूप से डाल दी गई थी, उस पर एक स्थायी बिस्तर पड़ गया था। पास की आलमारी में उसकी किताबें लग गई थीं और उनमें जेबी जासूस या गुप्त साहित्य के प्रवेश का निषेध कर दिया गया था। वहीं एक छोटी–सी मेज़ और कुर्सी भी कॉलिज से मँगाकर लगा दी गई थी। चारपायी के पास ही दीवाल में एक खिड़की थी, जो खुलने पर बाग़ों और खेतों का दृश्य पेश करती थी। यह दृश्य रंगनाथ की ज़िन्दगी को कवित्वमय बनाने के काम आता था और वहाँ उसे सचमुच ही कभी–कभी लगता था कि उसके सामने न जाने कितने वर्डस्वर्थ, कितने राबर्ट फ्रास्ट, कितने गुरुभक्तसिंह एक आर्केस्ट्रा बजा रहे हैं और उनके पीछे अनगिनत आंचलिक कथाकार मुँह में तुरही लगाए, साँस फुलाए खड़े हुए हैं।

  रुप्पन बाबू कहीं से कुछ ईंट–रोड़ा उठा लाए थे और उसे जोड़–गाँठकर उन्होंने एक रेडियो–जैसा तैयार कर दिया था। कमरे के ऊपर बाँसों और आस–पास के पेड़ों के सहारे उन्होंने लम्बे–लम्बे तार दौड़ा दिए थे जिससे लगता था कि वहाँ एशिया का सबसे बड़ा ट्रांसमिशन सेण्टर है। पर अन्दर का रेडियो एक हेड–फोन के सहारे ही सुना जा सकता था, जिसे कान पर चिपकाकर रंगनाथ कभी–कभी स्थानीय खबरें और वैष्णव सन्तों के शोकपूर्ण भजन सुन लेता था और इत्मीनान कर लेता था कि आल इण्डिया रेडियो अब भी वैसा ही है जैसा कि पिछले दिनों में था और हज़ार गालियाँ खाकर भी वह बेहया अपने पुराने ढर्रे से टस–से–मस नहीं हुआ है।

  रंगनाथ का कार्यक्रम वैद्यजी की सलाह से बना था; बहुत सबेरे उठना, उठकर सोचना कि कल का खाया हज़म हो चुका है। (ब्राह्‌मे मुहूर्त उत्तिष्ठेत् जीर्णाजीर्ण निरूपयेत्), ताँबे के लोटे में रखा हुआ ठण्डा पानी पीना, दूर तक टहलने निकल जाना, नित्यकर्म (क्योंकि संसार में वही एक कर्म नित्य है, बाक़ी अनित्य हैं), टहलते हुए लौटना (पर चंक्रमणं हितम्), मुँह–हाथ धोना, लकड़ी चबाना और उसी क्रम में लगे हाथ दाँत साफ़ करना (निम्बस्य तिक्तके श्रेष्ठ:
कषाये बब्बुलस्तथा), गुनगुने पानी से कुल्ले करना (सुखोष्णोदकगण्ड्षै: जायते वक्त्रलाघवम्), व्यायाम करना, दूध पीना, अध्ययन करना, दोपहर को भोजन करना, विश्राम, अध्ययन, सायंकाल टहलने जाना, लौटकर फिर साधारण व्यायाम, बादाम–मनक्के आदि के द्रव का प्रयोग, अध्ययन, भोजन, अध्ययन, शयन।

  रंगनाथ ने इस पूरे कार्यक्रम को ईमानदारी से अपना लिया था। इसमें सिर्फ़ इतना संशोधन हुआ था कि अध्ययन की जगह वैद्यजी की बैठक में गँजहों की सोहबत ने ले ली थी। चूँकि इससे रंगनाथ के वीर्य की प्रतिरक्षा को कोई खतरा नहीं था और कुल मिलाकर उसके पूरे दैनिक कार्यक्रम पर कोई असर नहीं पड़ता था, इसलिए वैद्यजी को इस संशोधन में कोई ऐतराज न था। बल्कि एक तरह से वे इसे पसन्द करते थे कि एक पढ़ा–लिखा आदमी उनके पास बैठा रहता है और हर बाहरी आदमी के सामने परिचय कराने के लिए हर समय तैयार मिलता है।

  कुछ दिनों में ही रंगनाथ को शिवपालगंज के बारे में ऐसा लगने लगा कि महाभारत की तरह, जो कहीं नहीं है वह यहाँ है, और जो यहाँ नहीं है वह कहीं नहीं है। उसे जान पड़ा कि हम भारतवासी एक हैं और हर जगह हमारी बुद्धि एक–सी है। उसने देखा कि जिसकी प्रशंसा में सभी मशहूर अखबार पहले पृष्ठ से ही मोटे–मोटे अक्षरों में चिल्लाना शुरू करते हैं, जिसके सहारे बड़े–बड़े निगम, आयोग और प्रशासन उठते हैं, गिरते हैं, घिसटते हैं, वही दाँव–पेंच और पैंतरेबाज़ी की अखिल भारतीय प्रतिभा यहाँ कच्चे माल के रूप में इफ़रात से फैली पड़ी है। ऐसा सोचते ही भारत की सांस्कृतिक एकता में उसकी आस्था और भी मज़बूत हो गई।

  पर कमज़ोरी सिर्फ़ एक बात को लेकर थी। उसने देखा था कि शहरों में वाद–विवाद का एक नया रूप पुरानी और नयी पीढ़ी को लेकर उजागर हो रहा है। उसके पीछे पुरानी पीढ़ी का यह विश्वास था कि हम बुद्धिमान हैं और हमारे बुद्धिमान हो चुकने के बाद दुनिया से बुद्धि नाम का तत्त्व ख़त्म हो गया है और नयी पीढ़ी के लिए उसका एक कतरा भी नहीं बचा है। वहीं पर नयी पीढ़ी की यह आस्था थी कि पुरानी पीढ़ी जड़ थी, थोड़े से खुश हो जाती थी और अपने और समाज के प्रति ईमानदार न थी, जबकि हम चेतन हैं, किसी भी हालत में खुश नहीं होते हैं और अपने प्रति ईमानदार हैं और समाज के प्रति कुछ नहीं हैं, क्योंकि समाज कुछ नहीं है।

  यह वाद–विवाद ख़ास तौर से साहित्य और कला के क्षेत्र में ही चल रहा था, क्योंकि औरों के मुक़ाबले वाद–विवाद के लिए साहित्य और कला के क्षेत्र ही ज़्यादा–से–ज़्यादा फैलावदार और कम–से–कम हानिकारक हैं। पिछली पीढ़ी के मन में अगली पीढ़ी को मूर्ख और अगली के मन में पिछली को जोकर समझने का चलन वहाँ इतना बढ़ गया था कि अगर क्षेत्र साहित्य या कला का न होता, तो अब तक गृहयुद्ध हो चुका होता। रंगनाथ कुछ दिन तक समझता रहा कि शिवपालगंज में अभी तक ऐसे पीढ़ी-संघर्ष का उदय नहीं हुआ है। पर एक दिन उसका भ्रम दूर हो गया। उसने देख लिया कि यहाँ भी उसी तरह का संघर्ष है। वह समझ गया कि यहाँ की राजनीति इस पहलू से भी कमज़ोर नहीं है।

  बात एक चौदह साल के लड़के को लेकर चली थी। एक शाम बैठक में किसी आदमी ने शिवपालगंज के उस लड़के का जीवन–चरित बताना शुरू किया। उससे प्रकट हुआ कि लड़के में बदमाश बनने की क्षमता कुछ इस तरह से पनपी थी कि बड़े–बड़े मनोवैज्ञानिक और समाज-वैज्ञानिक भी उसे प्रभु का चमत्कार मानने को मजबूर हो गए थे। सुना जाता है कि अमरीका से पढ़कर लौटे हुए कई विद्वानों ने उस लड़के के बारे में छानबीन की। उन्होंने टूटे हुए परिवार, बुरी सोहबत, खराब वातावरण, अपराधशील वंश–परम्परा आदि रटी–रटायी किताबी थ्योरियों को उस पर खपाना चाहा, पर लड़के ने खपने से इंकार कर दिया और बाद में वे विद्वान इसी नतीजे पर पहुँचे कि हो–न–हो, यह प्रभु का चमत्कार है।

  वास्तव में इससे इन विद्वानों की अयोग्यता नहीं, अपने देश की योग्यता ही प्रमाणित होती है जो आजकल अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, राजनीति-विज्ञान, मनोविज्ञान आदि के क्षेत्र में ऐसी–ऐसी व्यावहारिक समस्याएँ चुटकियों में पैदा कर सकता है कि अमरीका में क़ीमती कागज़ों पर छपी हुई किताबों के बेशक़ीमत सिद्धान्त पोच साबित होने लगते हैं और उनका हल �
�िकालने के लिए बड़े–बड़े भारतीय विद्वानों को घबराकर फिर अमरीका की ओर ही भागना पड़ता है। इस लड़के की केस–हिस्ट्री ने भी कुछ ऐसा तहलक़ा मचाया था कि एक बहुत बड़े विद्वान ने अपनी अगली अमरीका–यात्रा में उसका समाधान ढूँढ़ने की प्रतिज्ञा कर डाली थी।

  लड़का शिवपालगंज के इतिहास में अचानक ही दो–तीन साल के लिए उदित हुआ, चमका और फिर पुलिस के झाँपड़, वकीलों के व्याख्यान और मजिस्ट्रेट की सज़ा को निस्संग भाव से हज़म करता हुआ बाल–अपराधियों के जेल के इतिहास का एक अंग बन गया। वहीं पता चला कि उस लड़के का व्यक्तिगत चरित्र देश के विद्वानों के लिए समस्या बना हुआ है और उसे सुलझाने के लिए भारतवर्ष और अमरीका की मित्रता का सहारा लिया जानेवाला है। यह बात शिवपालगंज में आते–आते लोक–कथा बन गई थी और तब से वहाँ उस लड़के का लीला–संवरण बड़े अभिमान के साथ किया जाने लगा था।

 

‹ Prev