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Rag Darbari

Page 7

by Shrilal Shukla


  यह कहकर प्रिंसिपल उमर खैयाम के हीरो की तरह, ‘‘मैं पानी–जैसा आया था औ’ आँधी–जैसा जाता हूँ’’ की अदा से चल दिए। पीठ–पीछे उन्हें खन्ना मास्टर की भुनभुनाहट सुनाई दी।

  वे कॉलिज के फाटक से बाहर निकले। सड़क पर पतलून–कमीज़ पहने हुए एक आदमी आता हुआ दीख पड़ा। साइकिल पर था। पास से जाते–जाते उसने प्रिंसिपल साहब को और प्रिंसिपल साहब ने उसे सलाम किया। उसके निकल जाने पर क्लर्क ने पूछा, ‘‘यह कौन चिड़ीमार है ?’’

  ‘‘मलेरिया–इंसपेक्टर है...नया आया है। बी.डी.ओ. का भांजा लगता है। बड़ा फ़ितरती है। मैं कुछ बोलता नहीं। सोचता हूँ, कभी काम आएगा।’’

  क्लर्क ने कहा, ‘‘आजकल ऐसे ही चिड़ीमारों से काम बनता है। कोई शरीफ़ आदमी तो कुछ करके देता ही नहीं।’’

  थोड़ी देर तक दोनों चुपचाप सड़क पर चलते रहे। प्रिंसिपल ने अपनी बात फिर से शुरू की, ‘‘हर आदमी से मेल–जोल रखना ज़रूरी है। इस कॉलिज के पीछे गधे तक को बाप कहना पड़ता है।’’

  क्लर्क ने कहा, ‘‘सो तो देख रहा हूँ। दिन–भर आपको यही करते बीतता है।’’

  वे बोले, ‘‘बताइए, मुझसे पहले भी यहाँ पाँच प्रिंसिपल रह चुके हैं। कौनो बनवाय पावा इत्ती बड़ी पक्की इमारत ?’’ वे प्रकृतिस्थ हुए, ‘‘यहाँ सामुदायिक केन्द्र बनवाना मेरा ही बूता था। है कि नहीं ?’’

  क्लर्क ने सिर हिलाकर ‘हाँ’ कहा।

  थोड़ी देर में वे चिन्तापूर्वक बोले, ‘‘मैं फिर इसी टिप्पस में हूँ कि कोई चण्डूल फँसे तो इमारत के एकाध ब्लाक और बनवा डाले जाएँ।’’

  क्लर्क चुपचाप साथ–साथ चलता रहा। अचानक ठिठककर खड़ा हो गया। प्रिंसिपल साहब भी रुक गए। क्लर्क बोला, ‘‘दो इमारतें बननेवाली हैं।’’

  प्रिंसिपल ने उत्साह से गरदन उठाकर कहा, ‘‘कहाँ ?’’

  ‘‘एक तो अछूतों के लिए चमड़ा कमाने की इमारत बनेगी। घोड़ा–डॉक्टर बता रहा था। दूसरे, अस्पताल के लिए हैज़े का वार्ड बनेगा। वहाँ ज़मीन की कमी है। कॉलिज ही के आसपास टिप्पस से ये इमारतें बनवा लें...फिर धीरे–से हथिया लेंगे।’’

  प्रिंसिपल साहब निराशा से साँस छोड़कर आगे चल पड़े। कहने लगे, ‘‘मुझे पहले ही मालूम था। इनमें टिप्पस नहीं बैठेगा।’’

  कुछ देर दोनों चुपचाप चलते रहे।

  सड़क के किनारे एक आदमी दो–चार मज़दूरों को इकट्ठा करके उन पर बिगड़ रहा था। प्रिंसिपल साहब उनके पास खड़े हो गए। दो–चार मिनट उन्होंने समझने की कोशिश की कि वह आदमी क्यों बिगड़ रहा है। मज़दूर गिड़गिड़ा रहे थे। प्रिंसिपल ने समझ लिया कि कोई ख़ास बात नहीं है, मज़दूर और ठेकेदार सिर्फ़ अपने रोज़–रोज़ के तरीक़ों का प्रदर्शन कर रहे हैं और बातचीत में ज़िच पैदा हो गई है। उन्होंने आगे बढ़कर मज़दूरों से कहा, ‘‘जाओ रे, अपना–अपना काम करो। ठेकेदार साहब से धोखाधड़ी की तो जूता पड़ेगा।’’

  मज़दूरों ने प्रिंसिपल साहब की ओर कृतज्ञता से देखा। फुरसत पाकर वे अपने–अपने काम में लग गए। ठेकेदार ने प्रिंसिपल से आत्मीयता के साथ कहा, ‘‘सब बेईमान हैं। ज़रा–सी आँख लग जाए तो कान का मैल तक निकाल ले जाएँ। ड्योढ़ी मज़दूरी माँगते हैं और काम का नाम सुनकर काँखने लगते हैं।’’

  प्रिंसिपल साहब ने कहा, ‘‘सब तरफ़ यही हाल है। हमारे यहाँ ही लीजिए...कोई मास्टर पढ़ाना थोड़े ही चाहता है ? पीछे पड़ा रहता हूँ तब कहीं... !’’

  वह आदमी ठठाकर हँसा। बोला, ‘‘मुझे क्या बताते हैं ? यही करता रहता हूँ। सब जानता हूँ।’’ रुककर उसने पूछा, ‘‘इधर कहाँ जा रहे थे ?’’

  इसका जवाब क्लर्क ने दिया, ‘‘वैद्यजी के यहाँ। चेकों पर दस्तख़त करना है।’’

  ‘‘करा लाइए।’’ उसने प्रिंसिपल को खिसकने का इशारा दिया। जब वे चल दिए तो उसने पूछा, ‘‘और क्या हाल–चाल है ?’’

  प्रिंसिपल रुक गए। बोले, ‘‘ठीक ही है। वही खन्ना–वन्ना लिबिर-सिबिर कर रहे हैं आप लोगों के और मेरे ख़िलाफ़ प्रोपेगैंडा करते घूम रहे हैं।’’

  उसने ज़ोर से कहा, ‘‘आप फ़िक्र न कीजिए। ठाठ से प्रिंसिपली किए जाइए। उनको बता दीजिए कि प्रोपेगैंडा का जवाब है डण्डा। कह दीजिए कि यह शिवपालगंज है, ऊँचा–नीचा देखकर चलें।’’

  प्रिंसिपल साहब अब आगे बढ़ गए तो क्लर्क बोला, ‘‘ठेकेदार साहब को भी कॉलि
ज–कमेटी का मेम्बर बनवा लीजिए। काम आएँगे।’’

  प्रिंसिपल साहब सोचते रहे। क्लर्क ने कहा, ‘‘चार साल पहले की तारीख़ में संरक्षकवाली रसीद काट देंगे। प्रबन्धक कमेटी में भी इनका होना ज़रूरी है। तब ठीक रहेगा।’’

  प्रिंसिपल साहब ने तत्काल कोई जवाब नहीं दिया। कुछ रुककर बोले, ‘‘वैद्यजी से बात की जाएगी। ये ऊँची पालिटिक्स की बातें हैं। हमारे–तुम्हारे कहने से क्या होगा ?’’

  एक दूसरा आदमी साइकिल पर जाता हुआ दिखा। उसे उतरने का इशारा करके प्रिंसिपल साहब ने कहा, ‘‘नन्दापुर में चेचक फैल रही है और आप यहाँ झोला दबाए हुए शायरी कर रहे हैं ?’’

  उसने हाथ जोड़कर पूछा, ‘‘कब से ? मुझे तो कोई इत्तिला नहीं है।’’

  प्रिंसिपल साहब ने भौंहें टेढ़ी करके कहा, ‘‘तुम्हें शहर से फुरसत मिले तब तो इत्तिला हो। चुपचाप वहाँ जाकर टीके लगा आओ, नहीं तो शिकायत हो जाएगी। कान पकड़कर निकाल दिए जाओगे। यह टेरिलीन की बुश्शर्ट रखी रह जाएगी।’’

  वह आदमी घिघियाता हुआ आगे बढ़ गया। प्रिंसिपल साहब क्लर्क से बोले, ‘‘ये यहाँ पब्लिक हेल्थ के ए.डी.ओ. हैं। जिसकी दुम में अफ़सर जुड़ गया, समझ लो, अपने को अफ़लातून समझने लगा।’’

  ‘‘ये भी न जाने अपने को क्या लगाते हैं ! राह से निकल जाते हैं, पहचानते तक नहीं।’’

  ‘‘मैंने भी सोचा, बेटा को झाड़ दिया जाए।’’

  क्लर्क ने कहा, ‘‘मैं जानता हूँ। यह भी एक ही चिड़ीमार है।’’

  4

  कुछ घूरे, घूरों से भी बदतर कुछ दुकानें, तहसील, थाना, ताड़ीघर, विकास–खंड का दफ़्तर, शराबख़ाना, कॉलिज–सड़क से निकल जानेवाले को लगभग इतना ही दिखायी देता था। कुछ दूर आगे एक घनी अमराई में बनी हुई एक कच्ची कोठरी भी पड़ती थी। उसकी पीठ सड़क की ओर थी; उसका दरवाज़ा, जिसमें किवाड़ नहीं थे, जंगल की ओर था। बरसात के दिनों में हलवाहे पेड़ों के नीचे से हटकर इस कोठरी में जुआ खेलते, बाक़ी दिनों वह खाली पड़ी रहती। जब वह ख़ाली रहती, तब भी लोग उसे ख़ाली नहीं रहने देते थे और नर–नारीगण मौक़ा देखकर उसका मनपसन्द इस्तेमाल करते थे। शिवपालगंज में इस कोठरी के लिए जो नाम दिया गया था, वह हेनरी मिलर को भी चौंका देने के लिए काफ़ी था। उसमें ठण्डा पानी मिलाकर कॉलिज के एक मास्टर ने उसका नाम प्रेम–भवन रख दिया था। घूरों और प्रेम–भवन के बीच पड़नेवाले सड़क के इस हिस्से को शिवपालगंज का किनारा–भर मिलता था। ठेठ शिवपालगंज दूसरी ओर सड़क छोड़कर था। असली शिवपालगंज वैद्यजी की बैठक में था।

  बैठक तक पहुँचने के लिए गलियारे में उतरना पड़ता था। उसके दोनों किनारों पर छप्पर के बेतरतीब ऊबड़–खाबड़ मकान थे। उनके बाहरी चबूतरे बढ़ा लिये गए थे और वे गलियारे पर हावी थे। उन्हें देखकर इस फिलासफी का पता चलता था कि अपनी सीमा के आस–पास जहाँ भी ख़ाली ज़मीन मिले, वहीं आँख बचाकर दो–चार हाथ ज़मीन घेर लेनी चाहिए।

  अचानक यह गलियारा एक मैदान में खो जाता था। उसमें नीम के तीन–चार पेड़ लगे थे। जिस तरह वे पनप रहे थे, उससे साबित होता था कि वे वन–महोत्सवों के पहले लगाए गए हैं, वे किसी नेता या अफ़सर के छूने से बच गए हैं और उन्हें वृक्षारोपण और कैमरा-क्लिकन की रस्मों से बख्श दिया गया है।

  इस हरे–भरे इलाके में एक मकान ने मैदान की एक पूरी–की–पूरी दिशा को कुछ इस तरह घेर लिया था कि उधर से आगे जाना मुश्किल था। मकान वैद्यजी का था। उसका अगला हिस्सा पक्का और देहाती हिसाब से काफ़ी रोबदार था, पीछे की तरफ़ दीवारें कच्ची थीं और उसके पीछे, शुबहा होता था, घूरे पड़े होंगे। झिलमिलाते हवाई अड्डों और लकलकाते होटलों की मार्फत जैसा ‘सिम्बालिक माडर्नाइज़ेशन’ इस देश में हो रहा है, उसका असर इस मकान की वास्तुकला में भी उतर आया था और उससे साबित होता था कि दिल्ली से लेकर शिवपालगंज तक काम करनेवाली देसी बुद्धि सब जगह एक–सी है।

  मकान का अगला हिस्सा, जिसमें चबूतरा, बरामदा और एक बड़ा कमरा था, बैठक के नाम से मशहूर था। ईंट–गारा ढोनेवाला मज़दूर भी जानता था कि बैठक का मतलब ईंट और गारे की बनी हुई इमारत–भर नहीं है। नं. 10 डाउनिंग स्ट्रीट, व्हाइट हाउस, क्रेमलिन आदि मकानों के नहीं, ताकतों के नाम हैं।

  थाने से ल�
�टकर रुप्पन बाबू ने दरबारे–आम, यानी बरामदे में भीड़ लगी देखी; उनके क़दम तेज़ हो गए, धोती फड़फड़ाने लगी। बैठक में आते ही उन्हें पता चला कि उनके ममेरे भाई रंगनाथ शहर से ट्रक पर आए हैं; रास्ते में ड्राइवर ने उनसे दो रुपये ऐंठ लिये हैं।

  एक दुबला–पतला आदमी गन्दी बनियान और धारीदार अण्डरवियर पहने बैठा था। नवम्बर का महीना था और शाम को काफ़ी ठण्डक हो चली थी, पर वह बनियान में काफ़ी खुश नज़र आ रहा था। उसका नाम मंगल था, पर लोग उसे सनीचर कहते थे। उसके बाल पकने लगे थे और आगे के दाँत गिर गए थे। उसका पेशा वैद्यजी की बैठक पर बैठे रहना था। वह ज़्यादातर अण्डरवियर ही पहनता था। उसे आज बनियान पहने हुए देखकर रुप्पन बाबू समझ गए कि सनीचर ‘फ़ार्मल’ होना चाहता है। उसने रुप्पन बाबू को एक साँस में रंगनाथ की मुसीबत बता दी और अपनी नंगी जाँघों पर तबले के कुछ मुश्किल बोल निकालते हुए ललककर कहा, ‘‘बद्री भैया होते तो मज़ा आता।’’

 

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