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Rag Darbari

Page 8

by Shrilal Shukla


  रुप्पन बाबू रंगनाथ से छूटते ही बोले, ‘‘तुमने अच्छा ही किया रंगनाथ दादा। दो रुपिया देकर झगड़ा साफ़ किया। ज़रा–ज़रा–सी बात पर खून–ख़राबा करना ठीक नहीं।’’

  रंगनाथ रुप्पन बाबू से डेढ़ साल बाद मिल रहा था। रुप्पन बाबू की गम्भीरता को दिन–भर की सबसे दिलचस्प घटना मानते हुए रंगनाथ ने कहा, ‘‘मैं तो मारपीट पर उतर आया था, बाद में कुछ सोचकर रुक गया।’’

  रुप्पन बाबू ने मारपीट के विशेषज्ञ की हैसियत से हाथ उठाकर कहा, ‘‘तुमने ठीक ही किया। ऐसे ही झगड़ों से इश्टूडेण्ट कमूनिटी बदनाम होती है।’’

  रंगनाथ ने अब उन्हें ध्यान से देखा। कन्धे पर टिकी हुई धोती का छोर, ताज़ा खाया हुआ पान, बालों में पड़ा हुआ कई लीटर तेल–स्थानीय गुण्डागिरी के किसी भी स्टैण्डर्ड से वे होनहार लग रहे थे। रंगनाथ ने बात बदलने की कोशिश की। पूछा, ‘‘बद्री दादा कहाँ हैं ? दिखे नहीं।’’

  सनीचर ने अपने अण्डरवियर को झाड़ना शुरू किया, जैसे कुछ चींटियों को बेदख़ल करना चाहता हो। साथ ही भौंहें सिकोड़कर बोला, ‘‘मुझे भी बद्री भैया याद आ रहे हैं। वे होते तो अब तक... !’’

  ‘‘बद्री दादा हैं कहाँ ?’’ रंगनाथ ने उधर ध्यान न देकर रुप्पन बाबू से पूछा।

  रुप्पन बाबू बेरुखी से बोले, ‘‘सनीचर बता तो रहा है। मुझसे पूछकर तो गए नहीं हैं। कहीं गए हैं। बाहर गए होंगे। आ जाएँगे। कल, परसों, अतरसों तक आ ही जाएँगे।’’

  उनकी बात से पता चलना मुश्किल था कि बद्री उनके सगे भाई हैं और उनके साथ एक ही घर में रहते हैं। रंगनाथ ने ज़ोर से साँस खींची।

  सनीचर ने फ़र्श पर बैठे–बैठे अपनी टाँगें फैला दीं। जिस्म के जिस हिस्से से बायीं टाँग निकलती है, वहाँ उसने खाल का एक टुकड़ा चुटकी में दबा लिया। दबाते ही उसकी आँखें मुँद गईं और चेहरे पर तृप्ति और सन्तोष का प्रकाश फैल गया। धीरे–धीरे चुटकी मसलते हुए उसने भेड़िये की तरह मुँह फैलाकर जम्हाई ली। फिर ऊँघती हुई आवाज़ में कहा, ‘‘रंगनाथ भैया शहर से आए हैं। उन्हें मैं कुछ नहीं कह सकता। पर कोई किसी गँजहा से दो रुपये तो क्या, दो कौड़ी भी ऐंठ ले तो जानें।’’

  ‘गँजहा’ शब्द रंगनाथ के लिए नया नहीं था। यह एक तकनीकी शब्द था जिसे शिवपालगंज के रहनेवाले अपने लिए सम्मानसूचक पद की तरह इस्तेमाल करते थे। आसपास के गाँवों में भी बहुत–से शान्ति के पुजारी मौक़ा पड़ने पर धीरे–से कहते थे, ‘‘तुम इसके मुँह न लगो। तुम जानते नहीं हो, यह साला गँजहा है।’’

  फ़र्श पर वहीं एक चौदह–पन्द्रह साल का लड़का भी बैठा था। देखते ही लगता था, वह शिक्षा–प्रसार के चकमे में नहीं आया है। सनीचर की बात सुनकर उसने बड़े आत्मविश्वास से कहा, ‘‘शहराती लड़के बड़े सीधे होते हैं। कोई मुझसे रुपिया माँगकर देखता तो...।’’

  कहकर उसने हाथ को एक दायरे के भीतर हवा में घुमाना शुरू कर दिया। लगा किसी लॉरी में एक लम्बा हैंडिल डालकर वह उसे बड़ी मेहनत से स्टार्ट करने जा रहा है। लोग हँसने लगे, पर रुप्पन बाबू गम्भीर बने रहे। उन्होंने रंगनाथ से पूछा, ‘‘तो तुमने ड्राइवर को रुपये अपनी मर्ज़ी से दिए थे या उसने धमकाकर छीन लिये थे ?’’

  रंगनाथ ने यह सवाल अनसुना कर दिया और इसके जवाब में एक दूसरा सवाल किया, ‘‘अब तुम किस दर्ज़े में पढ़ते हो रुप्पन ?’’

  उनकी शक्ल से लगा कि उन्हें यह सवाल पसन्द नहीं है। वे बोले, ‘‘टैन्थ क्लास में हूँ...

  ‘‘तुम कहोगे कि उसमें तो मैं दो साल पहले भी था। पर मुझे तो शिवपालगंज में इस क्लास से बाहर निकलने का रास्ता ही नहीं सूझ पड़ता।...

  ‘‘तुम जानते नहीं हो दादा, इस देश की शिक्षा–पद्धति बिलकुल बेकार है। बड़े–बड़े नेता यही कहते हैं। मैं उनसे सहमत हूँ...।

  ‘‘फिर तुम इस कॉलिज का हाल नहीं जानते। लुच्चों और शोहदों का अड्डा है। मास्टर पढ़ाना–लिखाना छोड़कर सिर्फ़ पालिटिक्स भिड़ाते हैं। दिन–रात पिताजी की नाक में दम किये रहते हैं कि यह करो, वह करो, तनख्वाह बढ़ाओ, हमारी गरदन पर मालिश करो। यहाँ भला कोई इम्तहान में पास हो सकता है... ?

  ‘‘हैं। कुछ बेशर्म लड़के भी हैं, जो कभी–कभी इम्तहान पास कर लेते हैं, पर उससे...।’’

  कमरे में अन्दर वैद्यजी मरीज़ों को दवा
दे रहे थे। अचानक वे वहीं से बोले, ‘‘शान्त रहो रुप्पन। इस कुव्यवस्था का अन्त होने ही वाला है।’’

  जान पड़ा कि आकाशवाणी हो रही है : ‘घबराओ नहीं वसुदेव, कंस का काल पैदा होने ही वाला है।’ रुप्पन बाबू शान्त हो गए। रंगनाथ ने कमरे की ओर मुँह करके ज़ोर से पूछा, ‘‘मामाजी, आपका इस कॉलिज से क्या ताल्लुक़ है ?’’

  “ताल्लुक़ ?’’ कमरे में वैद्यजी की हँसी बड़े ज़ोर से गूँजी। ‘‘तुम जानना चाहते हो कि मेरा इस कॉलिज से क्या सम्बन्ध है ? रुप्पन, रंगनाथ की जिज्ञासा शान्त करो।’’

  रुप्पन ने बड़े कारोबारी ढंग से कहा, ‘‘पिताजी कॉलिज के मैनेजर हैं। मास्टरों का आना–जाना इन्हीं के हाथ में है।’’

  रंगनाथ के चेहरे पर अपनी बात का असर पढ़ते हुए उन्होंने फिर कहा, ‘‘ऐसा मैनेजर पूरे मुल्क में न मिलेगा। सीधे के लिए बिलकुल सीधे हैं और हरामी के लिए खानदानी हरामी।’’

  रंगनाथ ने यह सूचना चुपचाप हज़म कर ली और सिर्फ़ कुछ कहने की गरज़ से बोला, ‘‘और कोअॉपरेटिव यूनियन के क्या हाल हैं ? मामाजी उसके भी तो कुछ थे।’’

  ‘‘थे नहीं, हैं।’’ रुप्पन बाबू ने ज़रा तीखेपन से कहा, ‘‘मैनेजिंग डायरेक्टर थे, हैं और रहेंगे।’’

  वैद्यजी थे, हैं और रहेंगे।

  अंग्रेज़ों के ज़माने में वे अंग्रेज़ों के लिए श्रद्धा दिखाते थे। देसी हुकूमत के दिनों में वे देसी हाकिमों के लिए श्रद्धा दिखाने लगे। वे देश के पुराने सेवक थे। पिछले महायुद्ध के दिनों में, जब देश को जापान से ख़तरा पैदा हो गया था, उन्होंने सुदूर–पूर्व में लड़ने के लिए बहुत से सिपाही भरती कराए। अब ज़रूरत पड़ने पर रातोंरात वे अपने राजनीतिक गुट में सैकड़ों सदस्य भरती करा देते थे। पहले भी वे जनता की सेवा जज की इजलास में जूरी और असेसर बनकर, दीवानी के मुकदमों में जायदादों के सिपुर्ददार होकर और गाँव के ज़मींदारों में लम्बरदार के रूप में करते थे। अब वे कोअॉपरेटिव यूनियन के मैनेजिंग डायरेक्टर और कॉलिज के मैनेजर थे। वास्तव में वे इन पदों पर काम नहीं करना चाहते थे क्योंकि उन्हें पदों का लालच न था। पर उस क्षेत्र में ज़िम्मेदारी के इन कामों को निभानेवाला कोई आदमी ही न था और वहाँ जितने नवयुवक थे, वे पूरे देश के नवयुवकों की तरह निकम्मे थे; इसीलिए उन्हें बुढ़ापे में इन पदों को सँभालना पड़ा था।

  बुढ़ापा ! वैद्यजी के लिए इस शब्द का इस्तेमाल तो सिर्फ़ अरिथमेटिक की मजबूरी के कारण करना पड़ा क्योंकि गिनती में उनकी उमर बासठ साल हो गई थी। पर राजधानियों में रहकर देश–सेवा करनेवाले सैकड़ों महापुरुषों की तरह वे भी उमर के बावजूद बूढ़े नहीं हुए थे और उन्हीं महापुरुषों की तरह वैद्यजी की यह प्रतिज्ञा थी कि हम बूढे़ तभी होंगे जब कि मर जाएँगे और जब तक लोग हमें यक़ीन न दिला देंगे कि तुम मर गए हो, तब तक अपने को जीवित ही समझेंगे और देश–सेवा करते रहेंगे। हर बड़े राजनीतिज्ञ की तरह वे राजनीति से नफ़रत करते थे और राजनीतिज्ञों का मज़ाक उड़ाते थे। गाँधी की तरह अपनी राजनीतिक पार्टी में उन्होंने कोई पद नहीं लिया था क्योंकि वे वहाँ नये खून को प्रोत्साहित करना चाहते थे; पर कोअॉपरेटिव और कॉलिज के मामलों में लोगों ने उन्हें मजबूर कर दिया था और उन्होंने मजबूर होना स्वीकार कर लिया था।

  वैद्यजी का एक पेशा वैद्यक का भी था। वैद्यक में उन्हें दो नुस्खे़ ख़ासतौर से आते थे : ‘गरीबों का मुफ़्त इलाज’ और ‘फ़ायदा न हो तो दाम वापस’। इन नुस्ख़ों से दूसरों को जो आराम मिला हो वह तो दूसरी बात है, खुद वैद्यजी को भी आराम की कमी नहीं थी।

  उन्होंने रोगों के दो वर्ग बना रखे थे : प्रकट रोग और गुप्त रोग। वे प्रकट रोगों की प्रकट रूप से और गुप्त रोगों की गुप्त रूप से चिकित्सा करते थे। रोगों के मामले में उनकी एक यह थ्योरी थी कि सभी रोग ब्रह्‌मचर्य के नाश से पैदा होते हैं। कॉलिज के लड़कों का तेजहीन, मरियल चेहरा देखकर वे प्राय: इस थ्योरी की बात करने लगते थे। अगर कोई कह देता कि लड़कों की तन्दुरुस्ती ग़रीबी और अच्छी खुराक न मिलने से बिगड़ी हुई है, तो वे समझते थे कि वह घुमाकर ब्रह्‌मचर्य के महत्त्व को अस्वीकार कर रहा है, और चूँकि ब्रह्‌मचर्य को न मानन�
��वाला बदचलन होता है इसलिए ग़रीबी और खुराक की कमी की बात करनेवाला भी बदचलन है।

  ब्रह्मचर्य के नाश का क्या नतीजा होता है, इस विषय पर वे बड़ा ख़ौफ़नाक भाषण देते थे। सुकरात ने शायद उन्हें या किसी दूसरे को बताया था कि ज़िन्दगी में तीन बार के बाद चौथी बार ब्रह्‌मचर्य का नाश करना हो तो पहले अपनी क़ब्र खोद लेनी चाहिए। इस इंटरव्यू का हाल वे इतने सचित्र ढंग से पेश करते थे कि लगता था, ब्रह्‌मचर्य पर सुकरात उनके आज भी अवैतनिक सलाहकार हैं। उनकी राय में ब्रह्‌मचर्य न रखने से सबसे बड़ा हर्ज यह होता था कि आदमी बाद में चाहने पर भी ब्रह्‌मचर्य का नाश करने लायक नहीं रह जाता था। संक्षेप में, उनकी राय थी कि ब्रह्‌मचर्य का नाश कर सकने के लिए ब्रह्‌मचर्य का नाश न होने देना चाहिए।

 

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