Rag Darbari
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उनके इन भाषणों को सुनकर कॉलिज के तीन–चौथाई लड़के अपने जीवन से निराश हो चले थे। पर उन्होंने एक साथ आत्महत्या नहीं की थी, क्योंकि वैद्यजी के दवाखाने का एक विज्ञापन था :
‘जीवन से निराश नवयुवकों के लिए आशा का सन्देश !’
आशा किसी लड़की का नाम होता, तब भी लड़के यह विज्ञापन पढ़कर इतने उत्साहित न होते। पर वे जानते थे कि सन्देश एक गोली की ओर से आ रहा है जो देखने में बकरी की लेंडी–जैसी है, पर पेट में जाते ही रगों में बिजली–सी दौड़ाने लगती है।
एक दिन उन्होंने रंगनाथ को भी ब्रह्मचर्य के लाभ समझाए। उन्होंने एक अजीब–सा शरीर-विज्ञान बताया, जिसके हिसाब से कई मन खाने से कुछ छटाँक रस बनता है, रस से रक्त, रक्त से कुछ और, और इस तरह आखिर में वीर्य की एक बूँद बनती है। उन्होंने साबित किया कि वीर्य की एक बूँद बनाने में जितना ख़र्च होता है उतना एक ऐटम बम बनाने में भी नहीं होता। रंगनाथ को जान पड़ा कि हिन्दुस्तान के पास अगर कोई कीमती चीज़ है तो वीर्य ही है। उन्होंने कहा कि वीर्य के हज़ार दुश्मन हैं और सभी उसे लूटने पर आमादा हैं। अगर कोई किसी तरकीब से अपना वीर्य बचा ले जाए तो, समझो, पूरा चरित्र बचा ले गया। उनकी बातों से लगा कि पहले हिन्दुस्तान में वीर्य–रक्षा पर बड़ा ज़ोर था, और एक ओर घी–दूध की तो दूसरी ओर वीर्य की नदियाँ बहती थीं। उन्होंने आख़िर में एक श्लोक पढ़ा जिसका मतलब था कि वीर्य की एक बूँद गिरने से आदमी मर जाता है और एक बूँद उठा लेने से ज़िन्दगी हासिल करता है।
संस्कृत सुनते ही सनीचर ने हाथ जोड़कर कहा, ‘‘जय भगवान् की !’’ उसने सिर ज़मीन पर टेक दिया और श्रद्धा के आवेग में अपना पिछला हिस्सा छत की ओर उठा दिया। वैद्यजी और भी जोश में आ गए और रंगनाथ से बोले, ‘‘ब्रह्मचर्य के तेज का क्या कहना ! कुछ दिन बाद शीशे में अपना मुँह देखना, तब ज्ञात होगा।’’
रंगनाथ सिर हिलाकर अन्दर जाने को उठ खड़ा हुआ। अपने मामा के इस स्वभाव को वह पहले से जानता था। रुप्पन बाबू दरवाज़े के पास खड़े थे। उन पर वैद्यजी के भाषण का कोई असर नहीं पड़ा था। उन्होंने रंगनाथ से फुसफुसाकर कहा, ‘‘मुँह पर तेज लाने के लिए आजकल ब्रह्मचर्य की क्या ज़रूरत? वह तो क्रीम–पाउडर के इस्तेमाल से भी आ जाता है।’’
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पुनर्जन्म के सिद्धान्त की ईजाद दीवानी की अदालतों में हुई है, ताकि वादी और प्रतिवादी इस अफसोस को लेकर न मरें कि उनका मुकदमा अधूरा ही पड़ा रहा। इसके सहारे वे सोचते हुए चैन से मर सकते हैं कि मुक़दमे का फैसला सुनने के लिए अभी अगला जन्म तो पड़ा ही है।
वैद्यजी की बैठक के बाहर चबूतरे पर जो आदमी इस समय बैठा था, उसने लगभग सात साल पहले दीवानी का एक मुकदमा दायर किया था; इसलिए स्वाभाविक था कि वह अपनी बात में पूर्वजन्म के पाप, भाग्य, भगवान्, अगले जन्म के कार्यक्रम आदि का नियमित रूप से हवाला देता।
उसको लोग लंगड़ कहते थे। माथे पर कबीरपन्थी तिलक, गले में तुलसी की कण्ठी, आँधी–पानी झेला हुआ दढ़ियल चेहरा, दुबली–पतली देह, मिर्ज़ई पहने हुए। एक पैर घुटने के पास से कटा था, जिसकी कमी एक लाठी से पूरी की गई थी। चेहरे पर पुराने ज़माने के उन ईसाई सन्तों का भाव, जो रोज़ अपने हाथ से अपनी पीठ पर खींचकर सौ कोड़े मारते हों।
उसकी ओर सनीचर ने भंग का एक गिलास बढ़ाया और कहा, ‘‘लो भाई लंगड़, पी जाओ। इसमें बड़े–बड़े माल पड़े हैं।’’
लंगड़ ने आँखें मूँदकर इनकार किया और थोड़ी देर दोनों में बहस होती रही जिसका सम्बन्ध भंग की गरिमा, बादाम–मुनक्के के लाभ, जीवन की क्षण-भंगुरता, भोग और त्याग–जैसे दार्शनिक विषयों से था। बहस के अन्त में सनीचर ने अपना दूसरा हाथ अण्डरवियर में पोंछकर सभी तर्कों से छुटकारा पा लिया और सांसारिक विषयों के प्रति उदासीनता दिखाते हुए भुनभुनाकर कहा, ‘‘पीना हो तो सटाक से गटक जाओ, न पीना हो तो हमारे ठेंगे से !’’
लंगड़ ने ज़ोर से साँस खींची और आँखें मूँद लीं, जो कि आत्म–दया से पीड़ित व्यक्तियों से लेकर ज़्यादा खा जानेवालोें तक में भाव–प्रदर्शन की एक बड़ी ही लोकप्रिय मुद्रा मानी जाती है। सनीचर ने उसे छोड़ दिया और एक ऐसी बन्दर–छाप छलाँग लगाकर, जो डार्
विन के विकासवादी सिद्धान्त की पुष्टि करती थी, बैठक के भीतरी हिस्से पर हमला किया। वहाँ प्रिंसिपल साहब, क्लर्क, वैद्यजी, रंगनाथ आदि बैठे हुए थे। दिन के दस बजनेवाले थे।
सनीचर ने भंग का वही गिलास अब प्रिंसिपल साहब की ओर बढ़ाया और वही बात कही, ‘‘पी जाइए मास्टर साहब, इसमें बड़े–बड़े माल हैं।’’
प्रिंसिपल साहब ने वैद्यजी से कहा, ‘‘कॉलिज का काम छोड़कर आया हूँ। इसे शाम के लिए ही रखा जाए।’’
वैद्यजी ने स्नेहपूर्वक कहा, ‘‘सन्ध्याकाल पुन: पी लीजिएगा।’’
‘‘कॉलिज छोड़कर आया हूँ...।’’ वे फिर बोले।
रुप्पन बाबू कॉलिज जाने के लिए घर से तैयार होकर निकले। रोज़ की तरह कन्धे पर पड़ा हुआ धोती का छोर। बुश्शर्ट, जो उनकी फ़िलासफ़ी के अनुसार मैली होने के बावजूद, क़ीमती होने के कारण पहनी जा सकती थी। इस समय पान खा लिया था और बाल सँवार लिये थे। हाथ में एक मोटी–सी किताब, जो ख़ासतौर से नागरिकशास्त्र के घण्टे में पढ़ी जाती थी और जिसका नाम ‘जेबी जासूस’ था। जेब में दो फ़ाउण्टेनपेन, एक लाल और एक नीली स्याही का, दोनों बिना स्याही के। कलाई में घड़ी, जो सिद्ध करती थी कि जो जुआ खेलता है उसकी घड़ी तक रेहन हो जाती है और जो जुआड़ियों का माल रेहन रखता है उसे क़ीमती घड़ी दस रुपये तक में मिल जाती है।
रुप्पन बाबू ने प्रिंसिपल साहब की बात बाहर निकलते–निकलते सुन ली थी; वे वहीं से बोले, ‘‘कॉलिज को तो आप हमेशा ही छोड़े रहते हैं। वह तो कॉलिज ही है जो आपको नहीं छोड़ता।’’
प्रिंसिपल साहब झेंपे, इसलिए हँसे और ज़ोर से बोले, ‘‘रुप्पन बाबू बात पक्की कहते हैं।’’
सनीचर ने उछलकर उनकी कलाई पकड़ ली। किलककर कहा, ‘‘तो लीजिए इसी बात पर चढ़ा जाइए एक गिलास।’’
वैद्यजी सन्तोष से प्रिंसिपल का भंग पीना देखते रहे। पीकर प्रिंसिपल साहब बोले, ‘‘सचमुच ही बड़े–बड़े माल पड़े हैं।’’
वैद्यजी ने कहा, ‘‘भंग तो नाममात्र को है। है, और नहीं भी है। वास्तविक द्रव्य तो बादाम, मुनक्का और पिस्ता हैं। बादाम बुद्धि और वीर्य को बढ़ाता है। मुनक्का रेचक है। इसमें इलायची भी पड़ी है। इसका प्रभाव शीतल है। इससे वीर्य फटता नहीं, ठोस और स्थिर रहता है। मैं तो इसी पेय का एक छोटा–सा प्रयोग रंगनाथ पर भी कर रहा हूँ।’’
प्रिंसिपल साहब ने गरदन उठाकर कुछ पूछना चाहा, पर वे पहले ही कह चले, ‘‘इन्हें कुछ दिन हुए, ज्वर रहने लगा था। शक्ति क्षीण हो चली थी। इसीलिए मैंने इन्हें यहाँ बुला लिया है। इनके लिए नित्य का एक कार्यक्रम बना दिया गया है। पौष्टिक द्रव्यों में बादाम का सेवन भी है। दो पत्ती भंग की भी। देखना है, छ: मास के पश्चात् जब ये यहाँ से जाएँगे तो क्या होकर जाते हैं।’’
कॉलिज के क्लर्क ने कहा, ‘‘छछूँदर–जैसे आए थे, गैण्डा बनकर जाएँगे। देख लेना चाचा।’’
जब कभी क्लर्क वैद्यजी को ‘चाचा’ कहता था, प्रिंसिपल साहब को अफसोस होता था कि वे उन्हें अपना बाप नहीं कह पाते। उनका चेहरा उदास हो गया। वे सामने पड़ी हुई फ़ाइलें उलटने लगे।
तब तक लंगड़ दरवाज़े पर आ गया। शास्त्रों में शूद्रों के लिए जिस आचरण का विधान है, उसके अनुसार चौखट पर मुर्गी बनकर उसने वैद्यजी को प्रणाम किया। इससे प्रकट हुआ कि हमारे यहाँ आज भी शास्त्र सर्वोपरि है और जाति–प्रथा मिटाने की सारी कोशिशें अगर फ़रेब नहीं हैं तो रोमाण्टिक कार्रवाइयाँ हैं। लंगड़ ने भीख–जैसी माँगते हुए कहा, ‘‘तो जाता हूँ बापू !’’
वैद्यजी ने कहा, ‘‘जाओ भाई, तुम धर्म की लड़ाई लड़ रहे हो, लड़ते जाओ। उसमें मैं क्या सहायता कर सकता हूँ !’’
लंगड़ ने स्वाभाविक ढंग से कहा, ‘‘ठीक ही है बापू ! ऐसी लड़ाई में तुम क्या करोगे ? जब कोई सिफ़ारिश-विफ़ारिश की बात होगी, तब आकर तुम्हारी चौखट पर सिर रगड़ूँगा।’’
ज़मीन तक झुककर उसने उन्हें फिर से प्रणाम किया और एक पैर पर लाठी के सहारे झूलता हुआ चला गया। वैद्यजी ज़ोर से हँसे। बोले, ‘‘इसकी भी बुद्धि बालकों की–सी है।’’
वे बहुत कम हँसते थे। रंगनाथ ने चौंककर देखा, हँसते ही वैद्यजी का चेहरा मुलायम हो गया, नेतागीरी की जगह भलमनसाहत ने ले ली। एक आचारवान् महापुरुष की जगह वे बदच�
��न–जैसे दिखने लगे।
रंगनाथ ने पूछा, ‘‘यह लड़ाई कैसी लड़ रहा है ?’’
प्रिंसिपल साहब सामने फैली हुई फ़ाइलें और चेक–बुकें, जिनकी आड़ में वे कभी–कभी यहाँ सवेरे–सवेरे भंग पीने के लिए आते थे, समेटने लगे थे। हाथ रोककर बोले, ‘‘इसे तहसील से एक दस्तावेज़ की नकल लेनी है। इसने क़सम खायी है कि मैं रिश्वत न दूँगा और क़ायदे से ही नक़ल लूँगा, उधर नक़ल बाबू ने कसम खाई है कि मैं रिश्वत न लूँगा और क़ायदे से ही नक़ल दूँगा। इसी की लड़ाई चल रही है।’’
रंगनाथ ने इतिहास में एम. ए. किया था और न जाने कितनी लड़ाइयों के कारण पढ़े थे। सिकन्दर ने भारत पर क़ब्ज़ा करने के लिए आक्रमण किया था; पुरु ने, उसका क़ब्ज़ा न होने पाए, इसीलिए प्रतिरोध किया था। इसी कारण लड़ाई हुई थी। अलाउद्दीन ने कहा था कि मैं पद्मिनी को लूँगा, राणा ने कहा कि मैं पद्मिनी को नहीं दूँगा। इसीलिए लड़ाई हुई थी। सभी लड़ाइयों की जड़ में यही बात थी। एक पक्ष कहता था, लूँगा; दूसरा कहता था, नहीं दूँगा। इसी पर लड़ाई होती थी।